Concept of Sanatan Dharma: सनातन का सत्‍य व सरोकार

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Concept of Sanatan Dharma: आम तौर पर सनातन एक खुला हुआ, प्रश्नों को आमंत्रित करता हुआ, एक ईश्वर, एक ग्रन्थ और एक सत्ता से मुक्त धर्म है जिसे कई लोग धर्म नहीं, जीवन शैली भी कहते हैं। वे पूरी तरह गलत भी नहीं।

बौद्ध धर्म (Buddhism) को भी सनातन का हिस्सा माना जा सकता है जिसका आधार स्पष्ट करने की यहां कोशिश की गई हैं। इस गहन विषय पर प्रस्‍तुत है चैतन्‍य नागर का चिंतन।

गहरे संवाद पर आधारित

नास्तिक चार्वाक को भी ऋषि कहा जाता है और कुछ आधुनिक विचारकों ने तो मार्क्स को भी ऋषि की श्रेणी में रख दिया! अब सनातन धर्म की कुछ महत्वपूर्ण पुस्तकों पर ही नजर डालें तो दिखेगा कि वे तो बात-चीत पर, गहरे धार्मिक संवाद पर आधारित हैं।

वह चाहे अष्टावक्र गीता हो, चाहे योग वशिष्ठ हो या भगवद्गीता ही हो। ये सभी ग्रन्थ इस तरह के ही हैं कि वे आपसी संवाद के जरिये ही आगे बढ़ते हैं और किसी निष्कर्ष तक पहुंचते हैं।

अष्टावक्र गीता में जनक जैसे महान राजा एक ऐसे ऋषि के पीछे चलते हुए उनसे सवाल करते हैं जिनका भरे दरबार में मखौल उड़ाया जा चुका होता है। उनकी शारीरिक दशा की वजह से, क्योंकि उनके आठ अंग वक्र थे।

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संगठन नहीं है यह

सनातन धर्म को उस अर्थ में कभी भी संगठित करने की कोशिश नहीं की गई है, जिस अर्थ में अन्य धर्म संगठित किये गए हैं। न ही इसका कोई एक विशेष ग्रन्थ है, न ही कोई एक गुरु, न ही कोई ऐसी केन्द्रीय सत्ता जो फतवे जारी करने की हैसियत रखती हो।

गूढ़तम ज्ञान जीवन का

गीता के अठारहवें अध्याय में अपना समूचा ज्ञान अर्जुन को सौंपने के बाद श्री कृष्ण उससे कहते हैं: ‘यथेच्छसि तथा कुरु’ अर्थात अब जब कि मैंने जीवन का गूढ़तंम ज्ञान तुम्हें सौंप दिया है, इसके बाद तुम्हारी जो मर्जी वैसा ही तुम करो। जीवन के प्रति ऐसा मुक्त और लोकतान्त्रिक दृष्टिकोण शायद ही कहीं संभव हो।

ख़ास कर इस बात पर गौर किया जाए कि जो यह वक्तव्य जो दे रहा है वह और कोई नहीं श्री कृष्ण स्वयं हैं जिन्हें सनातन धर्म में ईश्वर या सर्वोच्च सत्ता का दर्जा प्राप्त है।

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प्रश्‍नों से जूझता, उसे खंगालता हुआ

तो सनातन धर्म वही है जो सनातन प्रश्नों से जूझता है, उन्हें खंगालता है, और उनके उत्तर ढूंढने का प्रयास करता है। ठीक वैसे ही जैसे विज्ञान पदार्थ से जुड़े सत्य की खोज में लगा होता है, सनातन धर्म जीवन और अस्तित्व से जुड़े प्रश्नों की पड़ताल में लगा रहता है। यदि इस तरह से देखा जाए, तो बौद्ध धर्म भी इसी श्रेणी में आता है।

बुद्ध व सनातन

बुद्ध ने सनातन शब्द का उपयोग किया। यह सर्वविदित है कि शाक्यमुनि बुद्ध को आम तौर पर अनीश्वरवादी माना जाता है। मृत्यु के बाद जीवन, ईश्वर के अस्तित्व जैसे प्रश्नों पर वह मौन ही रहते थे।

उनका मानना था दुःख जीवन की सच्चाई है और इसे ख़त्म करने की संभावना पर ही गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए, बाकी प्रश्नों की प्रासंगिकता इस ज्वलंत प्रश्न के सामने गौण है।

अस्तित्व से जुड़े किसी गंभीर प्रश्न पर बुद्ध जब विस्तार के साथ कुछ बोलते, उसके बाद वह कहते थे: ‘एस धम्मो सनंतनो’ अर्थात यही सनातन धर्म या सत्य है।

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सदा रहने वाला

सनातन उन नियमों में से एक है जिनपर हमारा जीवन आधारित है। इस संबंध में हमें उस ‘पेरेनियल विज्डम’ या ‘शाश्वत प्रज्ञा’ को भी ध्यान में रखना होगा, जिसमें थियोसोफिस्ट भरोसा करते थे, और जिसकी परंपरा भारत में प्रारंभ से थी।

यह उस प्रज्ञा की तरफ इशारा करता है जो हमेशा रही है और रहेगी, क्योंकि इसका आधार वे प्रश्न है जो इंसान सदियों से पूछता आया है, और पूछता रहेगा।

मानव जाति जितनी पुरानी

सनातन प्रश्न कभी ख़त्म नहीं हो सकते। ये उतने ही पुराने है जितनी मानव जाति। और ये तब तक जीवित रहेंगे जब तक एक भी इंसान धरती पर रहेगा। जो धर्म इस तरह के सनातन प्रश्न उठाता है, उनसे जूझता है वह सनातन धर्म है।

यह सच है कि उपनिषदों से लेकर, वेदों की ऋचाओं में, और उसके बाद आदि शंकराचार्य, माधवाचार्य, रामानुजाचार्य और हमारे समय में रमण महर्षि, स्वामी विवेकानंद, जिद्दू कृष्णमूर्ति सभी ने अपने अपने तरीके से इन सनातन प्रश्नों को पूछा, उनके उत्तर देने के प्रयास किये और इसलिए उन्हें सनातन परंपरा का हिस्सा माना जा सकता है।

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इस सौंदर्य को समझना है

दूसरी तरफ, इस्लाम और ईसाइयत ने भक्ति और आस्था पर जोर दिया। एक ही परम सत्ता के अस्तित्व को माना और उसपर सवाल करने की सख्त मनाही की, वहीं हिन्दू धर्म जिसे कि सनातन का पर्यायवाची माना जाता है, इन सवालों पर हमेशा से एक खुला, उदार रुख अपनाया।

हमेशा संवाद के जरिये इन सवालों को खंगाला, प्रश्नों को आमंत्रित किया। यही इसका सौंदर्य है और इस सौंदर्य और गांभीर्य को बार-बार समझने की आवश्यकता है।

 

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