Need Peace Not War : हर ऐतिहासिक, सामाजिक घटना के पीछे एक व्यक्तिगत और सामूहिक मनोवैज्ञानिक धरातल भी होता है जो समाज में, इतिहास के उस विशेष कालखंड में रहने वाले लोगों का निजी और सामूहिक, साझा धरातल होता है। इस धरातल को छोड़ कर हम हर मुद्दे पर बात करते हैं। जिस ज़मीन पर हम खड़े हैं, वह हमें दिखाई ही नहीं देती। अपनी आंखों को देखने के लिए तो आईने की दरकार पड़ती है।
दूसरों के साथ सार्थक संवाद ही वह आईना है जिसमे हमें अपनी शक्ल, अपनी आंखें दिखाई देती हैं| आईने हम तोड़ देते हैं, और बातें करते हैं किसी युद्ध की जड़ों तक जाने की। पर जड़ें खो चुकी हैं। जड़ें देखने की न इच्छा है और न ही साहस। पढ़ें जानें मानें लेखक व चिंतक चैतन्य नागर का यह चिंतन।
जैसे हम, वैसी हमारी दुनिया
पर हमने आईना क्यों तोड़ दिया है, बातें करना क्यों छोड़ दिया है? और संवाद का फायदा क्या है, क्यों हमें बातें करते रहना चाहिए? अच्छे श्रोता क्यों होना चाहिए और सुनने के बाद, संवाद के आधार पर जिस सकारात्मक समझ तक पहुंचें उस पर अमल करना क्यों जरूरी है?
संवाद से रिश्ते बनते हैं। हम जितनी अधिक बातचीत करेंगे, आपसी जोड़ मजबूत होता जाता है। यदि बातें एक झटके के साथ खत्म भी हो जाएं, तो भी कोशिश होनी चाहिए कि उसे फिर से शुरू किया जाये। बातें बंद होने पर रिश्ते मुरझा कर मर भी जाया करते हैं। यह सिर्फ रोमांटिक रिश्तों की कहानी नहीं, परिवारों में, आस-पड़ोस के लोगों के साथ, दो राज्यों और दो देशों के संबंधों पर भी यही सिद्धान्त लागू होता है।
कलह को दूर करने की औषधि
एक दूसरे के मन को टोहने के लिए बातचीत ही एक अकेला रास्ता है। बातचीत किस विषय पर है, किस तरह से, किस मनःस्थिति में की जा रही है, सबका अपना महत्व है। कलह को दूर करने की सबसे कारगर औषधि यही है। बातचीत करने से ही यह अहसास होता है कि जो दीवारें अभी तक संवाद में आड़े आ रही थीं, वे अचानक भरभरा कर गिर पड़ी हैं।
संबंधों में एक नई ऊर्जा आती है| नए विचार सामने आते हैं, चीजों को देखने के नई दृष्टियां निर्मित होती हैं और संवाद में शामिल सभी पक्षों के आंतरिक विकास की संभावना बनती है।
संवाद इतने जरूरी क्यों
कई बार विचार मन में घुमड़ते रहते हैं, उन्हें व्यक्त करने के अवसर नहीं मिलते। ऐसे में संवाद की भूमिका कीमती हो जाती है। संवाद समस्याओं को देखने और उनके बारे में स्पष्ट विचार निर्मित और व्यवस्थित करने में मदद करता है। जब संवाद के दौरान हम एक दूसरे को सुनते हैं तो लोग एक दूसरे से सहमत नहीं भी हो सकते, पर यदि वे सिर्फ सुनें तो इससे ही महसूस होता है कि लोग एक दूसरे को अहमियत तो दे रहे हैं।
असहमतियों का महत्व
संवाद में असहमति भी जरूरी है। असहमतियां चुनौती देती हैं और ये चुनौतियां हमें अपनी पूर्वनिर्धारित धारणाओं पर फिर से विचार करने के लिए प्रेरित करती हैं। यही विकास का आधार है| समाज में सिर्फ संवाद ही विकास की तरफ ले जा सकता है। हिंसा तो कभी भी नहीं। संवाद में पुराने ज़ख़्मों को फिर से भरने की ताकत होती है।
किसी के बारे में हम जो छवि बना लेते हैं, वह अक्सर संबंधों में बहुत बड़ी बाधा साबित होती है। संवाद एक तरह से छवियों को डीकंस्ट्रक्ट और रीकंस्ट्रक्ट करने का काम करता है। नहीं तो छवियां मृत होकर चेतना में अपनी स्थायी जगह बना लेती हैं।
छवियों की क्रूरता
इंसान और समाज बदल जाते हैं। मरी हुई छवियां वहीं की वहीं पड़ी रह जाती हैं। उन पर टिके संबंध भी विकृत हो जाते हैं। उनमें हिंसा आ जाती है। सहानुभूति और समानुभूति का अंत हो जाता है। संवाद की सभी सकारात्मक संभावनाओं को कहीं से दागा गया एक रॉकेट समाप्त कर देता है।
उसके बाद क्रूरता, उसके बखान, उसका महिमामंडन और उसकी निंदा का खेल चलता है। हमारी हिंसा और आपकी हिंसा के नाम से हिंसा दो हिस्सों में विभाजित हो जाती है। युद्ध की जड़ में पड़े कारणों को ढूंढने की उम्मीद और धुंधली पड़ती जाती है। मन युद्ध के बाहरी लक्षणों के वर्णन और परिणामों को गिनने और तौलने में व्यस्त हो जाता है।
इंसानियत से नहीं, इंसान से उम्मीद
बढ़ती हुई संवादहीनता और हिंसा ने गहरी निराशा पैदा की है। लगता है इंसानियत से कोई उम्मीद नहीं की जा सकती। इक्का-दुक्का इंसान कहीं, कभी बदल जाए यह मुमकिन है। पर समूची इंसानियत तो इसी तरह मार-काट और कलह में जीवन बिताएगी, ऐसा ही लगता है।
इतिहास बताता है कि पहला युद्ध एलाम और सुमेर के बीच 2700 ई पू हुआ था। पर इंसान अलग-अलग स्तर पर, आपस में, पशुओं के साथ लगातार युद्ध में लिप्त रहा है। जब से उसने धरती पर पैर रखें हैं तब से ही।
भीतर बसा हमास व इजरायल
बड़े युद्ध उन छोटी-छोटी लड़ाइयों का विस्तृत रूप हैं वह आपस में, पड़ोसियों के साथ, दूसरे कबीलों के साथ और पशुओं के साथ करता रहता था| जब वह अधिक संगठित हुआ, तो उसकी युद्ध करने की इच्छा और क्षमता दोनों बढीं। सूक्ष्म, क्रूर और शातिर हुई।
हमारे भीतर हमेशा से हमास और इजराइल बसे रहे हैं, हमेशा से हमारे भीतर एक उलझा हुआ, कलह-ग्रस्त भारत-पकिस्तान नफ़रत भरी आंखों से एक दूसरे को तरेरता रहा है, हमेशा से रूस और युक्रेन हमारे जेहन के स्थाई बाशिंदे रहे हैं। कुछ लोग कहते हैं कि इजराइल और फिलीस्तीन के बीच जंग की ऐतिहासिक जड़ों में जाने की जरूरत है।
जड़ हम खुद
कोई कहां तक जड़ों में जाएगा? और ख़ास कर तब, जब जड़ हम खुद ही हों? खुद की आंखों में जलती हुई नफ़रत देख सकें, इतना अधिक नैतिक और मानसिक बल आएगा कहां से? कनाडा जैसे विकसित देशों को देख लें, या अफगानिस्तान-पाकिस्तान जैसे देशों को।
नेता हथियारों के कारोबार, मजहब के बहाने से एक काल्पनिक दुश्मन को तैयार करने और उसे परास्त करने में लगे है। कारोबारी हथियारों के धंधे में पैसे और नेता वोट कमाने में लगे हैं। आम आदमी भूख और तंगहाली को भूल कर सियासत के झांसे में आ जाता है और लग जाता है मरने-मारने के कारोबार में।
अंधी होती रहेगी दुनिया
इतनी अधिक उसकी ब्रेन वाशिंग होती है कि उसे लगता है कि देश और मजहब के लिए मर जाना, और उसके तथाकथित दुश्मनों को मारना एक अकेला मकसद है जिसके लिए वह पैदा हुआ है। ये सब कहानी-किस्से हैं। एक दूसरे का मन बहलाने और नेताओं, कारोबारियों के लोभ को संतुष्ट करने के लिए गढ़े गए हैं।
और हम सभी इसका शिकार हो गए हैं। आखिर में यही समझ आता है कि हम आंखों के बदले आंखें छीनते रहेंगे। दुनिया अंधी होती रहेगी।
जीवन नहीं, मृत्यु भाती है
अब काफी वृद्ध हो चुके बापू अपनी जर्जर काया लिए कोने में बैठे हैं, हताश हो चुके हैं। इस उम्मीद में हैं कि कभी न कभी सार्थक संवाद होंगे, बातें होंगी, हमारे तौर-तरीकों में ईमानदारी दिखेगी| एक तरफ हम कृत्रिम बुद्धि के युग के लिए सज-संवर कर तैयार हो चुके हैं, और दूसरी तरफ अपने आवरण में हमने खंजर और बंदूकें तैयार रखी हुई हैं।
हमें जंग पसंद हैं। उनकी आदत हो गई है हमें। हम जीवन ऊर्जा के ही शत्रु हैं। उसकी सभी अभिव्यक्तियों को मिटा कर हमें एक रुग्ण आनंद मिलता है। क्या घृणा से हमें बहुत प्रेम है!
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